खण्ड-9 / यहाँ कौन भयभीत है / दीनानाथ सुमित्र
161
रे राजा बतला मुझे, कैसा तेरा राज।
तेरा बेटा मौज में, मेरा मरा अकाज।।
162
बेगानों का देश है, दुख का खड़ा पहाड़।
किसको फुर्सत है यहाँ, करे किसी को प्यार।।
163
चैन नहीं मिलता कभी, बेचैनी का राज।
हम कपोत पर रोज ही, झपटा करता बाज।।
164
अमन नहीं है जगत में, सारा जग बाजार।
यहाँ एक दस बन रहा, बड़ा कुटिल व्यापार।।
165
भरो कलम में आग तुम, मारो सारे नाग।
वर्ना नहीं गुलाल से, कहीं मानेगा फाग।।
166
बोलो राजा क्यों हुआ, डल का पानी लाल।
कब तक अपने स्वर्ग को, देखूँ यूँ बदहाल।।
167
प्रेम नगर के लोग हम, आए करतेे प्रेम।
पथ इसके हैं कठिनतर, बड़े कठिन हैं नेेम।।
168
तेरे-मेरे प्रेम में, कहो कहाँ है देह।
बिना देह के जगत में, मुश्किल है अब नेह।।
169
मेरा प्रेमी देव है, विस्तृत है आकार।
इसीलिए तो हो गया, मेरा विस्तृत प्यार।।
170
सबके जीवन में सदा, आए राजकुमार।
सुंदर, सुखद सुभाव हो, हृदय मध्य हो प्यार।।
171
डगर कठिन है प्रेम की, रखिए चरण संभाल।
इसे तोड़ना है कठिन, यह प्यारा जंजाल।।
172
ज्योति सदा जलती रहे, घर आँगन औ द्वार।
इच्छा सबकी हो यही, ज्योतित हो संसार।।
173
सीखी जिसने सादगी, त्यागा जो अभिमान।
वही पूर्ण है गगन सा, वही असल भगवान।।
174
फागुन आया झूमता, पी कर प्यारी भंग।
जुल्म बड़ा मीठा हुआ, सब का अंग अनंग।।
175
प्रेम पहाड़ा याद है, इसे न सकता भूल।
गणित जिंदगी का सदा, रखना है अनुकूल।।
176
प्रेम देह का मूल है, बिना प्रीत क्या देह।
कभी प्रेम में नेह है, कभी प्रेम में मेह।।
177
प्रेम सुखी आकाश है, प्रेम नदी का नीर।
प्रेम रहे सदमुक्त ही, नहीं बने जंजीर।।
178
बच्चे तो भगवान हैं, इन्हें चाहिए नेह।
प्यार नेह से ये खिलें, पुलकित रखिए देह।।
179
चाकर बन कर जी रहा, है चौथा स्तम्भ।
पर बिकने वाला नहीं, जन-कवियों का दम्भ।।
180
राजनीति उल्टी नदी, काफी तेज प्रवाह।
सदा बनाती आ रही, रौंद हृदय को राह।।