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खतियान / रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह / सुलोचना वर्मा

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हाथ पसारते ही मुठ्ठी भर जाती है ऋण से
जबकि मेरे खेत में भरा है अनाज।
धूप ढूँढ़े नहीं मिलती है कभी दिन में,
प्रकाश में बहाती है रात की वसुन्धरा।

हलके से झाड़ते ही झड़ता है सड़ी हुई उँगली का घाम,
ध्वस्त होता है तब दिमाग का मस्तूल
नाविक लोग भूलते हैं अपना पुकारनाम
आँखों में खिलता है रक्तजवा का फूल।

पुकार उठो यदि स्मृति सिक्त फीके स्वर में,
उड़ाओ नीरव में गोपनीय रुमाल को
पँछी लौटेंगे पथ चीन्ह-चीन्ह कर घर में
मेरा ही केवल नहीं रहेगा चीन्हा हुआ पथ —
हलके से झाड़ते ही झड़ जाएगी पुरानी धूल
आँखों के किनारे जमा एक बून्द जल।

कपास फटकर बतास में तैरेगी रुई
नहीं रहेगा सिर्फ़ निवेदित तरुतल
नहीं जागेगा वनभूमि के सिरहाने चाँद
रेत के शरीर पर सफ़ेद झाग की छुअन
नहीं आएगा याद अमीमांसित जाल
अविकल रह जाएगा, रहता आया है जैसे लेटना
हाथ पसारते ही मुट्ठी भर जाती है प्रेम से
जबकि मेरी विरहभूमि है व्यापक
भाग जाना चाहता हूँ — पथ थम जाता है पाँव में
ढक दो आँखें उँगली के नख से तुम।

मूल बांग्ला से सुलोचना वर्मा द्वारा अनूदित