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खत्म नहीं होता है कुछ भी / अजित कुमार

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विचलित कर देने से अच्छा है
विचलित हो जाना ।
दुखी बनाने से बेहतर है
दुख पाकर मर जाना ।
कितना ही चाहें
पर हम निस्संग नहीं हो सकते हैं,
जिस पीड़ा का कारण हम थे
उसकी ग्लानि अवश्य हमारे अन्तर को रँग देगी ।
उसे नहीं धो सकते हैं ।
अपने कृत्यों के तटस्थ द्रष्टा बनकर हम
कभी नहीं रह पाते हैं,
शब्द हमारे -अस्त्र हमारे - हमसे चलकर
लौट हमीं तक आते हैं ।
जो कहकर हमने समझा था,
अब तो इसको कह डाला,
जो करके हम सोच रहे थे—
सहना जिसे पड़ा, उसने तो आसानी से सह डाला …
खत्म नहीं होता है कुछ भी,
कितना ही सोचें-समझें ।
टूटे हुए तीर ने यदि बेधा था कुछ
तो
बिंधे हुए की आह, तीर से अधिक तीव्र
हो
हम तक आती,
छाती चीर पार हो जाती
कभी न पुरनेवाला घाव बनाती है ।
काश । तीर की जगह
खुशी की किरन छूटती इस मन से
काश । रक्त की जगह
हँसी की लहर बहाई होती हमने ।