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खर-पतवारों के बीच / परितोष कुमार 'पीयूष'

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बदहाली की मात्रक,फटेहाली की पैदाइस
वो नन्हें कदमों से परचून की दूकान जाते वक्त
जब खींच ली गई होगी सड़क किनारे से
खर-पतवारों के बीच सूनसान जंगली खेतों में
कितनी छटपटायी होगी, कितनी मिन्नतें माँगी होगी
आबरू बचा लेने की खातिर

कैसा लगा होगा उसे
जब उसकी सुनने वाला कोई नहीं होगा
उसकी अपनी ही आवाज
डरावनी चीखों में तब्दील हो लौटती होगी कानों में
उसका हर एक विरोध जब उत्तेजित करता होगा
मानवी गिद्धों के झुंड को
उसके सारे सपने
सारी आकांक्षाओं ने दम तोड़ दियें होंगे
और वह ढ़ीली, निढ़ाल पर गयी होगी
मानवी गिद्धों की पकड़ में
अपने जिस्म पर बचे
वस्त्रों के चंद फटे टुकड़ों के साथ

उसकी खुली आँखों के सामने
हो रहा था उसके अंगों का बँटवारा
आपस में गिद्धों के बीच
शायद उसे पता चल चुका था
परसों रात भी यही हुआ होगा
नीम के पेड़ से लटकी
रज्जो की लाश की साथ

जिसे आत्महत्या साबित कर दिया था
समाज के कद्दावर लोगों ने
पंचायत की चौकी पर