भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खसबुअन के बासतें खुद धूप गूगर ह्वै गए / नवीन सी. चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
खसबुअन के बासतें खुद धूप गूगर ह्वै गए।
देख लै दुनिया हम’उ तेरे बरब्बर ह्वै गए॥
अब न कोऊ चौंतरा लीपै न छींके ही धरै।
कैसे-कैसे घर हते, सब ईंट-पत्थर ह्वै गए॥
एक बेरी साँच में घनश्याम नें बोल्यौ हो झूठ।
तब सों ही ऊधौ हमारे द्रग समन्दर ह्वै गए॥
जैसें तैसें आदमीयत कौ हुनर सीख्यौ मगर।
लोमड़िन के राज में हम फिर सों बन्दर ह्वै गए॥
ऐसी अदभुत बागबानी कौन सों सीखे 'नवीन'।
ऐसे-ऐसे गुल खिलाए खेत बंजर ह्वै गए॥