भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ंजर को ख़ंजर कहना है / राकेश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ंजर को ख़ंजर कहना है
ऐसा अब अक्सर कहना है

सहमे-सहमे, डरे हुए हो
डर को भी अब डर कहना है

शीशों के इस शहर में आकर
पत्थर को पत्थर कहना है

खेतों में हल लेकर निकलो
बंजर को बंजर कहना है

जंगल में तुम सबको जाकर
बंदर को बंदर कहना है

सर्दी के ही मौसम में तो
बेघर को बेघर कहना है

अजब चलन है नए शहर का
ज़ालिम को भी ‘सर’ कहना है