ख़तरा / कुमार विकल
जब तब अख़बारों में
क़ीमतों के और बढ़ने की ख़बर आती है
और घर के छोटे—छोटे ख़र्चों को लेकर
मेरी पत्नी और मेरे दरम्यान
गृह—युद्ध शुरू हो जाता है
तो देश की सरहदों पर
दुश्मनों की फौजें खड़ी कर दी जाती हैं—
देश ख़तरे में है
चीज़ों की बढ़ती क़ीमतों को भूल जाओ
राशन की दुकानों पर लम्बी क़तारों की ओर मत देखो
देखो सिर्फ़ देश की सरहदों पर तैनात दुश्मनों की फौजों को।
तुम्हारे गृह—युद्ध से देश को इतना ख़तरा है
जितना दुश्मनों की फौजों से
तुम अपनी पत्नी को समझा क्यों नहीं सकते
अपने ख़र्चे कुछ घटा क्यों नहीं सकते
मसलन, बच्चों को स्कूल भेजना छोड़ दो
पढ़ने—लिखने में क्या रक्खा है
जबकि तुम्हारे वर्ग का हर बच्चा
हाथ—पाँव के धन्धों में बहुत पक्का है।
अपने मेहनतकश बच्चों को घर का बोझ उठाने का प्रोत्साहन दो
और ख़ुद देश की सरहदों की ओर ध्यान दो
ध्यान—
देश की सरहदों की ओर तो जाता है
लेकिन हर बार
रास्ते से लौट आता है
और श्वास—रोग से पीड़ित पत्नी के साथ
घर की रसोई में उलझ जाता है।
मेरी आँखों में दोपहर के भोजन का लालच है
लेकिन रसोई का चूल्हा मुझे लजाता है
अलबत्ता बच्चे ‘दोपहर का भोजन’ कर रहे हैं
बासी रोटियों को लेकर आपस में लड़ रहे हैं
साथ में माँ की हड्डियों को चबा रहे हैं
एक आदमी को गालियाँ सुना रहे हैं।
मेरा ध्यान पत्नी की हड्डियों
और बच्चों की गालियों की ओर जाता है
लेकिन हर बार
देश की सरहदों की ओर लौट आता है
जहाँ दुश्मन की फौजें तैनात हो चुकी हैं
और देश ख़तरे में है।