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ख़त ने आ कर की है शायद रहम फ़रमाने / वली 'उज़लत'
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ख़त ने आ कर की है शायद रहम फ़रमाने की अर्ज़
तब तो अब सुनता है हँस कर मुझ से दीवाने की अर्ज़
शाम-ए-ग़ुर्बत हम से मजरूहों की है फ़रियाद-रस
ज़ुल्फ़ की छाती फटी है सुनते ही शाने की अर्ज़
बोसा-ए-लाल-ए-बुताँ जो ले सो हो बे-आबरू
इतनी ही ख़िदमत में मस्तूँ की है पैमाने की अर्ज़
गोश-ए-गुल में सब फफूले पड़ गए शबनम के हाथ
आग थी बुलबुल की फ़रियादों के अफ़साने की अर्ज़
फ़स्ल-ए-गुल आते ही ‘उज़लत’ दिल ज़बान-ए-आह से
मेरी ख़िदमत में करे है दश्त में जाने की अर्ज़