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ख़याले हिज्र से इस दरजा डर गईं आँखें / शिवांश पाराशर
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ख़याले हिज्र से इस दरजा डर गईं आँखें,
तुम्हारी दीद को हद से गुज़र गईं आँखें
सुकूत कैसे भला कारगर किया जाए,
सो उसकी मेरी तरफ़ बा हुनर गईं आँखें
मनाज़िर और भी कितने थे बाग में सुंदर,
बस एक फूल पर जाकर ठहर गईं आँखें
तमाम उम्र उसी रहगुज़र पर गुज़री है,
जहाँ पर छोड़ा वहीं पर ठहर गईं आँखें
सियाही मुफ़्त में बदनाम कर दी है लेकिन,
लगाया काजल उन्होंने सँवर गईं आँखें