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ख़यालों के जंगल / आनंद खत्री
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रात अपने ख़यालों के
जंगल में जाना
कभी तो
रास्ते किनारे
झील पे झुके पेड़ से
एक शरारत तोड़ लाना
फ़र्द में अधूरी
मिसरों के विलय में उलझी
ग़ज़ल की डालियों में चंद
हर्फ़ों के
कांटे बिखरे पड़े हैं
पाँव की कोरें में
चुभ गए अगर राज़ दोस्ती के
तो यादों की छाल से रिसते द्रव्य की
दो बूँद छुआना
और आगे बढ़ते जाना
याद है
वो पिछलेसाल
जब बारिश ज़्यादा हुई थी
और दो शामें चट्टानों पर
नंगे पैर दौड़ पड़ी थीं
वो सब तुमने एक रूमाल पे
काढ़ ली थीं
आज उसी
रूमाल का एक कोना
वक्त पर काम आया है मेरे
प्यार भी इंसान को कितना सिखाता है
दोस्ती का सफ़र रूमान हो
तो दूर तक जाता है