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ख़र्च बड़े, छोटी तनख़्वाहें / विजय किशोर मानव

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ख़र्च बड़े, छोटी तनख़्वाहें,
दौरों पर हैं लगी निगाहें
जैसे सूखी नदी रेत से
मिलती है फैलाए बाहें
कैसे निभती है यह तो, बस,
हम जानें या जाने राम।

उलटे हुए फटे कॉलर से
ढकी सफ़ेदी को भी ख़तरा
थके गाँव की नीन्द उड़ाते
सूखा-बाढ़, खतौनी-खसरा
कैसे निभती है यह तो, बस,
हम जानें या जाने राम।

हर सपना पूरा होने में
थोड़ी कसर बनी रहती है
सुख की बहुत विरल छाया पर
दुख की धूप घनी रहती है
कैसे निभती है यह तो, बस,
हम जानें या जाने राम।