ख़ला की बून्द थी, फैली तो कायनात हुई / रवि सिन्हा
ख़ला<ref>शून्य (space, nothingness)</ref> की बून्द थी, फैली तो कायनात<ref>सृष्टि (Universe)</ref> हुई
ज़रा सी बात थी, फ़ित्ने<ref>उपद्रव, झगड़ा (mischief, quarrel)</ref> उठे, हयात<ref>ज़िन्दगी (life)</ref> हुई
सुबह-ओ-शाम फ़राहम<ref>मौजूद (existent)</ref> हैं इस धुन्धलके में
अजीब मुल्क है ये दिन हुआ न रात हुई
हमीं वफ़ा करें, हम दें सुबूत भी उनको
वो’ ख़ल्क़ो-मुल्क<ref>लोग और देश (people and country)</ref> हैं उनकी ख़ुदा की ज़ात हुई
हक़ीक़तें सलासिल<ref>ज़ँजीरें (shackles)</ref> और ख़्वाब में बाज़ार
असीरे-ज़ीस्त<ref>ज़िन्दगी के क़ैदी (prisoners of life)</ref> की क्या क़ीमते-नजात<ref>मुक्ति (liberation)</ref> हुई
इसी ज़मीन से पैदा हुए हैं हम औ' तुम
कहें तो क्या कहें क्यूँ दिल मिले न बात हुई
मुझे न पूछ बाज़ीचा<ref>खेल (game)</ref>-ए-इश्क़ की चालें
हज़ार मर्तबा अपनी यहीं पे मात हुई
ये’ खेल ज़िन्दगी ने बार-बार खेला है
जो’ डाल-डाल थे हम तो वो’ पात-पात हुई
तमाम हो गए हैं सारे जहाँ के सब अफ़्कार<ref>चिन्ताएँ (worries)</ref>
तभी हयात को अब फ़िक्र-ए-ममात<ref>मौत (death)</ref> हुई
लहद<ref>क़ब्र (grave)</ref> में पाँव थे लेकिन नज़र सितारों पर
सफ़र तमाम हो ऐसे जो’ अपनी रात हुई