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ख़ला की रूह किस लिए हो मेरे इख़्तियार में / रियाज़ लतीफ़
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ख़ला की रूह किस लिए हो मेरे इख़्तियार में
उड़ान को तो ज़िक्र तक न था मिरे फ़रार में
कभी तो मंज़रों के इस तिलिस्म से उभर सकूँ
खड़ा हूँ दिल की सतह पर ख़ुद अपने इंतिज़ार में
ये साअतों की भीड़ ने उसे गँवा दिया न हो
रखा था मैं ने एक लम्स वक़्त की दरार में
सफ़र में मरहलों की रस्म भी है अब बुझी बुझी
वही पुरानी गर्द है हर इक नए ग़ुबार में
अबद की सरहदों के पार भी हदों का शोर था
थी पैकरों की दास्ताँ ख़ला के शाहकार में
ये जिस्म क्यूँ ये रूह क्यूँ हयात क्यूँ ‘रियाज़’ क्यूँ
सिफ़र सिफ़र की गूँज है तलाश के मज़ार में