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ख़ला को छू के आना चाहता हूँ / प्रखर मालवीय 'कान्हा'
Kavita Kosh से
ख़ला को छू के आना चाहता हूँ
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ
मेरी ख़्वाहिश तुझे पाना नहीं है
ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ
तुझे ये जान कर हैरत तो होगी
मैं अब भी मुस्कुराना चाहता हूँ
तेरे हंसने की इक आवाज़ सुन कर
तेरी महफ़िल में आना चाहता हूँ
मेरी ख़ामोशियों की बात सुन लो
ख़मोशी से बताना चाहता हूँ
बहुत तब्दीलियाँ करनी हैं ख़ुद में
नया किरदार पाना चाहता हूँ