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ख़ाक-ज़ादा हूँ ता-ब फ़लक जाता है / शहबाज़ ख्वाज़ा

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ख़ाक-ज़ादा हूँ ता-ब फ़लक जाता है
मेरा इदराक बहुत दूर तलक जाता है

तेरी निस्बत को छुपाता तो बहुत हूँ लेकिन
तेरा चेहरा मिरी आँखों से झलक जाता है

इक हकीक़त से उभर आता है हर शय का वजूद
एक जुगनू से अंधेरा भी चमक जाता है

यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
पहरे-दारों में कोई आँख झपक जाता है

मैं फ़क़त ख़ाक पे रखता हूँ जबीं को ‘शहबाज’
आसमाँ ख़ुद ही मिरी सम्त सरक जाता है