Last modified on 12 दिसम्बर 2014, at 16:26

ख़ाक में मिलती हैं कैसे बस्तियाँ मालूम हो / सगीर मलाल

ख़ाक में मिलती हैं कैसे बस्तियाँ मालूम हो
आने वालों को हमारी दास्ताँ मालूम हो

जो इधर का अब नहीं है वो किधर का हो गया
जो यहाँ मादूम हो जाए कहाँ मालूम हो

मरहला तस्ख़ीर करने का इसे आसान है
गर तुझे अपना बदन सारा जहाँ मालूम हो

जो अलग हो कर चले सब घूमते हैं उस के गिर्द
यूँ जुदा हो कर गुज़र कि दरमियाँ मालमू हो

कितनी मजबूरी है ला-महदूद और महदूद की
बे-कराँ जब हो सकें तब बे-कराँ मालूम हो

एक दम हो रौशनी तो क्या नज़र आए ‘मलाल’
क्या समझ पाऊँ जो सब कुछ ना-गहाँ मालूम हो