ख़ानाबदोश औरत / किरण अग्रवाल
ख़ानाबदोश औरत
अपनी काली, गहरी पलकों से
ताकती है क्षितिज के उस पार
सपना जिसकी आँखों में डूबकर
ख़ानाबदोश हो जाता है
उसकी ही तरह
समय
जो लम्बे-लम्बे डग भरता
नापता है ब्रह्मांड को
समय
जिसकी नाक के नथुनों से
निकलता रहता है धुआँ
जिसके पाँवों की थाप से
थर्राती है धरती
दिन
जिसके लौंग-कोट के बटन में उलझकर
भूल जाता है अक्सर रास्ता
औरत उसके दिल की धडकन है
रूक जाए
तो रूक जाएगा समय
और इसलिए टिककर नहीं ठहरती कहीं
चलती रहती है निरन्तर ख़ानाबदोश औरत
अपने काफ़िले के साथ
पडाव-दर-पडाव
बेटी — पत्नी — माँ....
वह खोदती है कोयला
वह चीरती है लकडी
वह काटती है पहाड
वह थापती है गोयठा
वह बनाती है रोटी
वह बनाती है घर
लेकिन उसका कोई घर नहीं होता
ख़ानाबदोश औरत
आसमान की ओर देखती है तो कल्पना चावला बनती है
धरती की ओर ताके तो मदर टेरेसा
हुँकार भरती है तो होती है वह झाँसी की रानी
पैरों को झनकाए तो ईजाडोरा
ख़ानाबदोश औरत
विज्ञान को खगालती है तो
जनमती है मैडम क्यूरी
क़लम हाथ में लेती है तो महाश्वेता
प्रेम में होती है वह क्लियोपैट्रा और उर्वशी
भक्ति में अनुसुइय्या और मीरां
वह जन्म देती है पुरूष को
पुरूष जो उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है
पुरूष जो उसको अपने इशारे पर हाँकता है
फिर भी बिना हिम्मत हारे बढ़ती रहती है आगे
ख़ानाबदोश औरत
क्योंकि वह समय के दिल की धडकन है
अगर वह रूक जाए
तो रूक जाएगी सृष्टि