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ख़ामोशियों का खौफ़ है / राजेश चड्ढ़ा
Kavita Kosh से
ख़ामोशियों का ख़ौफ़ है, डरने लगा हूं मैं,
यूं तन्हा लम्हा-लम्हा, मरने लगा हूं मैं ।
रात के आग़ोश में, चुभने लगा है चांद ,
चांदनी से रफ़्ता-रफ़्ता, जलने लगा हूं मैं ।
ठंडी-सफ़ेद-जमी हुई, बर्फ़ की मानिंद ,
क़तरा-क़तरा देखो, पिघलने लगा हूं मैं ।
सन्नाटों का ये तूफ़ां, ज़िंदग़ी से जाए ,
ये बेआवाज़ इल्तेजाह, करने लगा हूं मैं ।
ये तीसरा पहर है, बस शाम होने वाली है,
वो देखो दूर मग़रिब में, ढ़लने लगा हूं मैं ।