ख़ामोशी का समाँ है और मैं हूँ / जोश मलीहाबादी
ख़ामोशी का समाँ है और मैं हूँ
दयार-ए-ख़ुफ़्तगाँ<ref>सोये हुए लोगों का जहाँ</ref> है और मैं हूँ
कभी ख़ुद को भी इंसाँ काश समझे
ये सई-ए-रायगाँ<ref>बेकार सी कोशिश</ref> है और मैं हूँ
कहूँ किस से कि इस जमहूरियत में
हुजूम-ए-ख़सरवाँ<ref>राजाओं की भीड़</ref> है और मैं हूँ
पड़ा हूँ इस तरफ़ धूनी रमाये
अताब-ए-रहरवाँ है और मैं हूँ
कहाँ है हम-ज़बाँ अल्लाह जाने
फ़क़त मेरी ज़बाँ है और मैं हूँ
ख़ामोशी है ज़मीं से आस्माँ तक
किसी की दास्ताँ है और मैं हूँ
क़यामत है ख़ुद अपने आशियाँ में
तलाश-ए-आशियाँ है और मैं हूँ
जहाँ एक जुर्म है याद-ए-बहाराँ
वो लाफ़ानी-ख़िज़ाँ<ref>स्थायी पतझड़</ref> है और मैं हूँ
तरसती हैं ख़रीददारों की आँखें
जवाहिर की दुकाँ है और मैं हूँ
नहीं आती अब आवाज़-ए-जरस<ref>घंटियों की आवाज़</ref> भी
ग़ुबार-ए-कारवाँ<ref>कारवां के बाद उड़ती हुई धूल</ref> है और मैं हूँ
म'अल-ए-बंदगी<ref>किसी की पूजा का फल</ref> ऐ "जोश" तौबा
ख़ुदा-ए-मेहरबाँ है और मैं हूँ