ख़ामोशी के शून्य में / शिवप्रसाद जोशी
एक व्यक्ति कितना निर्लिप्त हो सकता है
किस हद तक हो सकता है दूर
किस हद तक निस्संग
किस हद तक उदासीन।
मुझे देखिए
मैं प्रेम को ठुकरा चुकी हूँ
सिर्फ़ इसलिए कि मुझे उससे कोई मतलब नहीं
वह किसी काम का नहीं
वह कुछ नहीं दे सकता
एक आश्वासन से ज़्यादा चाहिए था मुझे
एक चुंबन होता तो मैं कहती
हाँ, कुछ और दो
वह भी नहीं है वहाँ
क्या वाकई कोई और आग नहीं होती प्रेम के आसपास
फिर मुझे क्यों घसीटा जा रहा है प्रेम की कहानी में।
मुझे नहीं पता कि
शरीर चाहिए था
या व्यक्ति या फ़लसफ़ा
या मदद
या किसी की महानता
मुझे नहीं पता
अंतरंग होने के लिए और क्या करना होता है
सिवाय कि आप बैठे रहें बैठे रहें देर तक
और फोटुएँ दिखाएँ और पहाड़ और गाने
और दुनिया के बारे में कितनी देर बातें करें
मुझे नहीं पता
स्वार्थ मेरा चाहत मेरी
कोई इस तरह नहीं मिटा सकता
कोई मुझसे दूर रहकर मुझसे प्रेम नहीं कर सकता
मेरी आत्मा मेरा जंगल है
मुझे लकड़हारे नहीं चाहिए
मुझे शिकारी नहीं चाहिए
परिंदे और जानवर नहीं चाहिए
मुझे अपने जंगल में टहलने दो
मत पुकारो बार बार
भटकते हुए इस जंगल में आ पहुँचे राहगीर !
लौट जाओ अपने यथार्थ में
मेरी बेरुख़ी के रास्ते से।