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ख़ामोशी को रेत लिखूँ या आब लिखूँ / रवि ज़िया

ख़ामोशी को रेत लिखूँ या आब लिखूँ
कैसे रिश्तों का ये मुश्किल बाब लिखूँ

सोच रहा हूँ सिर्फ़ तुम्हारे कहने से
कैसे ठहरे पानी को सैलाब लिखूँ

तुम कहते हो सारे मंज़र सच्चे हैं
दिल कहता है हर मंज़र को ख़्वाब लिखूँ

पार उतरने की ख़्वाहिश तो सबको है
किस के नाम बताओ फिर गिर्दाब लिखूँ

आंखों को इक अक्स दिखाई देता है
जब भी कोरे काग़ज़ पर महताब लिखूँ

मेरी मजबूरी है बज़्मे-शाही में
ख़ुश्क ज़मीनों के मंज़र शादाब लिखूँ

कब तक तेरे नाम धनक लिखता जाऊँ
कब तक अपने हिस्से सिर्फ़ अज़ाब लिखूँ

हर्फ़-हर्फ़ जिसका सच बोले रवि ज़िया
दिल करता है ऐसी कोई किताब लिखूँ।