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ख़ाली आदमी / रजत कृष्ण

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ख़ाली आदमी के पास
शब्द बहुत होते
पर उन्हें सुनने वाले कान कम ।
उनके पाँवों के हिस्से में
यात्रा बहुत होती
पर न सुस्ताने को ठौर कोई
ना ही होता कोई अता-पता
उनके मुकाम का ।

ख़ाली आदमी का
जीना क्या, मरना क्या ?
सौ साल की ठोकर
वह पल-पल जीता है...
हर सुबह
एक और अन्धेरी सुरंग में
पाँव धरता है ।
   
यों ख़ाली आदमी
भीतर से पूरा ख़ाली
कभी नहीं होता...
ख़ालीपन की सलाइयों से
भविष्य के नाप का स्वेटर बुनना
वह बुन रहा होता है ।।