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ख़ाल-ए-मश्‍शाता बना काजल का चश्‍म-ए-यार पर / शाह 'नसीर'

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ख़ाल-ए-मश्‍शाता बना काजल का चश्‍म-ए-यार पर
ज़ाग को बहर-ए-तसद्दुक रख सर-ए-बीमार पर

मुझ को रहम आता है दस्त-ए-नाजुक-ए-दिल-दार पर
मैं ही रख दूँगा गला ऐ हम-दमो तलवार पर

बे-सुवेदा हाथ दिल मत डाल ज़ुल्फ-ए-यार पर
माश पहले पढ़ के मंतर फेंक रू-ए-यार पर

गर हिफाज़त रूख़ की है मंजूर तो मिटवा न ख़त
बाग़बाँ रखता है काँटें बाग़ की दीवार पर

कौन कहता है कि सब्ज़ा आग पर उगता नहीं
ख़त है पैदा यार के देखो रूख़-ए-गुलनार पर

देख मिज़गाँ पर मिरी तुग़यानी-ए-सैल-ए-सरिश्‍क
नूह का तूफ़ाँ न देखा होवे जिस ने ख़ार पर

जिस को देखा ही नहीं उस के वतन में क़द्र-ए-ख़ाक
बाग़ से हो कर जुदा पहुँचे है गुल दस्तार पर

हक़ अगर पूछो तो एजाज़-ए-सर-ए-मंसू था
वर्ना लगना था तअज्जुब फल का नख़्ल-ए-दार पर