ख़ुदकुशी : किसी को इतने रतजगे न दो / बाबुषा कोहली
(अत्तिला योज़ेफ़<ref>हंगेरियन कवि अत्तिला योज़ेफ़ ने 32 वर्ष की उम्र में ट्रेन की पटरियों के नीचे आ कर आत्मघात कर लिया था।</ref> के लिए)
...और एक दिन अलसुबह वो बिस्तर से उठा
सूरज सही वक़्त पर अटारी पर आ बैठा था
पर रात थी कि कमबख्त ! कटी ही नहीं थी
नींद ने एक बार फिर ऊँची आवाज़ में उसका नाम पुकारा
वो पुकारों को अनसुना करने के मानी जानता था
कि उसकी जेबें चीख़ बन चुकी अपनी ही कातर पुकारों से भरी पड़ी थीं
सिक्के खन् खन् टकराते थे और हुआ यूँ साहब कि बस ! जेब कट गई
उस रोज़ अलसुबह कच्ची नींद में उठा था वो
कि अब पक्की नींद के लिए कुछ जुगाड़ किया जाए
और जैसा कि ख़बर कहती है कि सूरज एकदम सही वक़्त पर अटारी पर चढ़ आया था
पर हाय ! वो रात थी कि कटी ही नहीं थी
अपनी आत्मा के हज़ार टुकड़ों के मुक़ाबले उसने अपनी देह के सौ टुकड़े कर देना चुना
ता-उम्र अपनी पीठ पर अपने ही टुकड़े बाँध कर फिरता था
ज़िन्दगी ने उसे पीठ के दर्द दिए थे
उसके मन पर चील-गिद्धों के नाख़ून ताज़िन्दगी रहे
उस रोज़ धरती को चूम कर वो गहरी नींद सो गया
लोरी जैसी होती है भाप-इंजन की खड़खड़ उसके लिए
जो एक अरसे से सोया न हो
आसमान कहता है कि किसी को इतने रतजगे न दो कि वो पक्की नींद का पता ढूँढ़े
आसमान के पास आँखें हैं पर हाथ नहीं
ज़ख़्मी गर्दन पर तमगे टाँगे गए
उसकी नींद की मिट्टी पर उगा दिए गए गुलाब के फूल
आख़िर शान्ति और सन्नाटे में कोई तो फ़र्क होता है
दरअसल मेरे दोस्त !
सन्नाटे न तोड़े गए तो जम्हाई आती है
कि बत्तीस साल बहुत से सवालों की उम्र होती है