ख़ुदाओं की इस जंग में / शहनाज़ इमरानी
दिन रात का सारा हिसाब बिगड़ा हुआ इन दिनों
धार्मिक नफ़रत ने राजनीति से निकलकर
क़ब्ज़ा कर लिया लोगों के दिमागों पर
कहीं भीड़ बनकर कहीं भीड़ में शामिल होकर
शक के आधार पर बेगुनाहों का क़त्ल
हार पहनाकर स्वागत किया जाता अब हत्यारों का
सदियों की उपेक्षा और सियासी चालबाज़ियों का नतीजा
पुकारा जाता ग़द्दार और देशद्रोही के नाम से
हो रही है लगातार विचारों की हत्या
यहाँ प्रतिरोध अब बेमानी और बेअसर
दीवारें ख़ामोश हैं निःशब्द खड़े हैं पहरेदार
जेल में बन्द है अहिंसा
सबका साथ सबका विकास नहीं होता
सिर्फ़ कुछ लोगों का विकास
झूठ को झूठ कहना देशद्रोह हुआ
शब्दों और भाषणों से फ़ैल रही नफ़रतें
वो डराते हैं ज़िन्दगी को
वो हमारे मारे जाने का ख़्वाब देखते
भूखमरी और जंग के बीच भी बनाते नये क़ायदे
अमन के परिन्दे बैठे बारूद के ढेर पर
लाशों पर राष्ट्र की बुनियाद
हर जुर्म में एक क़ौम को तलाशना लाज़मी
मुस्लिम फ़ोबिया फैलता मीडिया
इनसान से जानवर होते जाने के वक़्त में
राजनीति और धर्म के बदलते मायने
किए जा रहे हैं छल
एक-दूसरे को निगल जाने के षड्यंत्र
भूख और हाथ के बढ़ते जाते फ़ासले के बीच
पदक और पदोन्नतियाँ
मिलते हैं जो मौत के सौदागरों को
नाउम्मीदी काली रात सी
सबके अपने दाँव
कोई ऐसा कोई वैसा और कोई न जाने कैसा
उदासीनता के इस सन्नाटे में
मरते जाते हैं एहसास
कब पता चलता है की न चाहते हुए भी
बन जाते हैं दर्शक इस निर्मम समय की चुप्पी के बीच ।