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ख़ुदाया हुस्न वालों पर इनायत ये भी की होती / रतन पंडोरवी

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ख़ुदाया हुस्न वालों पर इनायत ये भी की होती
दहन शीरीं तो बक्शा था ज़बां शीरीं भी दी होती

बराबर के तमाशे में ग़ज़ब की दिल कशी होती
भड़कते हैं इधर शोले उधर भी कुछ लगी होती

तिरे ग़म में ख़ुशी से हम सुपुर्दे-ख़ाक जब होते
ख़ुशी को तो खुशी होनी ही थी ग़म को खुशी होती

खताएं ही मिरी मुझ को दरे-रहमत पे ले आईं
भटक जाता ख़ताओं से अगर कुछ भी कमी होती

कलेजे से लगा रक्खा है दुनिया भर का ग़म हम ने
यही है ज़िन्दगी या रब तो ये हम को न दी होती

सज़ा तो इश्क़ ने पाई महब्बत की अदालत में
तक़ाज़ा ये था पाए-हुस्न में बेड़ी पड़ी होती

मुककमल आदमीयत से अगर ये बहरा-वर होता
फरिश्तों से भी फिर हासिल बशर को बरतरी होती

'रतन' हुस्ने-ज़बां के साथ अगर हुस्ने-बयां होता
जहां में क़ाबिले-तक़लीद तेरी शायरी होती।