जहां में क्या क्या, खु़दी के अपनी, हर एक बजाता है शादयाने<ref>बधाई, खुशी के समय बजने वाला गाना</ref>।
कोई हकीम और कोई महंदस, कोई हो पण्डित कथा बखाने।
कोई है आक़िल<ref>बुद्धिमान</ref>, कोई है फ़ाज़िल<ref>पूरा विद्वान, स्नातक</ref>, कोई नुजूमी<ref>ज्योतिषी</ref> लगा कहाने।
जो चाहो कोई यह भेद खोले, यह सब हैं हीले यह सब बहाने।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना<ref>योग्य व्यक्ति</ref>, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥1॥
हवा के ऊपर जोआस्मां का, बे चोबा ख़ेमा यह तन रहा है।
न उसके मेंखें, न हैं तनाबें न उसके चोबें अघर खड़ा है।
इधर है चांद और उधर है सूरज, इधर सितारे उधर हवा है।
किसी को मुतलक़ ख़बर नहीं है, कि कब बना है और काहे का है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥2॥
फ़लक तो कहने को दूर हैगा, जमीं का अब जो यह बिस्तरा है।
खड़े हैं लाखों पहाड़ जिस पर, फ़लक से सिर जिनका जा लगा है।
हज़ारों हिकमत<ref>होशियारी</ref> का बिछौना, यह पानी ऊपर जो बिछ रहा है।
बहुत हकीमांे ने ख़ाक छानी, कोई न समझा यह भेद क्या है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥3॥
ज़मीं से लेकर आस्मां तक, भरी हैं लाखों तरह की ख़ल्क़त।
कहीं है हाथी, कीं है च्यूंटी, कहीं है राई कहीं है पर्वत।
यह जितने जलवे दिखा रही है, खु़दा की सनअत<ref>कारीगरी</ref> खु़दा की हिकमत<ref>बुद्धिमत्ता</ref>।
जो चाहे खोले यह भेद उसके, किसी को इतनी नहीं है कु़दरत।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥4॥
कोई जो पूछे किसी से जाकर ‘यह मुल्क क्या है और कब बना है?’
जो जानता हो तो कुछ बतावे, न जाने सो क्या, कहे कि क्या है?
अरस्तू, लुक़मां और फ़लातूं, हर एक सर को पटक गया है।
यह वह तिलिस्मात हैं कि जिनकी, न इब्तिदा<ref>प्रारम्भ</ref> है न इन्तिहा<ref>अन्त</ref> है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥5॥
कोई है हंसता, कोई है रोता, कहीं है शादी, कहीं गमी है।
कहीं तरक़्की, कहीं तनज़्जु़ल<ref>पतन</ref>, कहीं गुमां और कहीं यकीं हैं।
कोई घिसटता जमीं के ऊपर, कोई खुशी से फ़लक नशी<ref>आसमान पर बैठने वाला ऊँचा</ref> है।
यह भेद अपना वह आप जाने, किसी को हरगिज़ ख़बर नहीं है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥6॥
अजब तरह की यह रंगीं चोपड़<ref>खेल जो बिसात पर चार रंगों की गोटियों से खेला जाता है, चौसर</ref> गरज़ बिछाई हैं अब खु़दा ने।
कोइ है फुटकल<ref>अकेला</ref> किसी का जुग<ref>जोड़ा</ref> है फिरे हैं नर्दे<ref>चौपड़ की गोट</ref> भी ख़ाने ख़ाने॥
जो पासा<ref>हाथी दांत या हड्डी के छह पहले टुकड़े जिनके पहलों पर बिन्दियां बनी होती हैं और जिनसे चौपड़ खेलते हैं</ref> फेंके बना बना कर और दांव कितने ही दिल में ठाने।
जो चाहता हो अठारह आवें, तो उसके पड़ते हैं तीन काने॥
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥7॥
अजब यह शतरंज का सा नक़्शा, बिछा है दिन और रात इस जा।
जो मात चाहे करे किसी को, न आवे बुर्द<ref>शतरंज की वह बाजी जिसमें आधी मात मानी जाती है और जिसमें हारने वाले के पास बादशाह के सिवा कोई मोहरा नहीं रहता</ref> उसके हात इस जा।
हज़ारों मंसूबे बांधे दिल में बनावे चालों की घात इस जा।
नहीं है इक चार चौक क़ायम, सभों की बाज़ी है मात इस जा।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥8॥
अज़ब तरह के वरक़<ref>पृष्ठ</ref> बने हैं, कोई मुकद्दर<ref>मैला, गंदा</ref> कोई सफा है।
किसी के सर पर है ताजशाही, किसी पे शमशीर<ref>तलवार</ref> पुर जफ़ा<ref>अत्याचार से भरी हुई</ref> है।
कोई अमीर और कोई वज़ीर है कोई फ़कीरी में दिल ख़फा है।
सभों को इस जा ख़याल आया, यह हक़ की कु़दरत का गंजफ़ा है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥9॥
यह कौन जाने कि कल किया क्या और आज मालिक वह क्या करेगा।
किसे बिगाड़े किसे संवारे, किसे लुटावे किसे भरेगा।
किसी के घर कौन होगा पैदा, किसी के घर कौन सा मरेगा।
किसी को हरगिज़ ख़बर नहीं है कि क्या किया और वह क्या करेगा॥
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥10॥
अजब तरह का यह जाल हैगा कमंद<ref>फंदा पाश, एक लम्बी रस्सी जिसके एक सिरे पर गोह बंधी रहती थी, उसके द्वारा ऊँची-ऊँची दीवारों पर चढ़ा जा सकता था, गोह जहां चिपक जाती है फिर कितना ही ज़ोर किया जाय वहां से नहीं छूटती। कमंद शब्द असल मंे खमंद था क्योंकि उस रस्सी में बहुत से खम, टेढ़ होते हैं।</ref> कहिये व या कमन्दा।
न छूटे च्यूंटी न छूटे हाथी, न कोई बहशी<ref>जंगली पशु</ref> न कोई परिन्दा॥
सभी की गर्दन फंसी है इसमें, किसी का टूटा न एक फंदा।
‘नज़ीर’ इतनी मजाल किसकी, कहां खु़दा और कहाँ यह बंदा।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥11॥