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ख़ुद-परस्ती का जो सौदा हो गया / वज़ीर अली 'सबा' लखनवी
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ख़ुद-परस्ती का जो सौदा हो गया
आप मैं अपना तमाशा हो गया
जब मुझे अपनी हक़कीत खुल गई
जुज़ से कुल क़तरे से दरिया हो गया
जान-ए-शीरीं हम ने किस सख़्ती से दी
नीम-चा क़ातिल का दौना हो गया
खींच कर तस्वीर रू-ए-यार की
और ही मानी का नक़्शा हो गया
ज़ोफ़ के बढ़ने से हम को ऐ जुनूँ
ख़ाना-ए-ज़ंजीर सहरा हो गया
ऐ ‘सबा’ ये भी लिखा तक़दीर का
हम से और उन से मचलका हो गया