भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ुद अपने दिल में ख़राशें उतारना होंगी / मोहसिन नक़वी
Kavita Kosh से
ख़ुद अपने दिल में ख़राशें उतारना होंगी
अभी तो जाग के रातें गुज़ारना होंगी
तेरे लिए मुझे हँस हँस के बोलना होगा
मेरे लिए तुझे ज़ुल्फ़ें सँवारना होंगी
तेरी सदा से तुझी को तराशना होगा
हवा की चाप से शक्लें उभारना होंगी
अभी तो तेरी तबियत को जीतने के लिए
दिल ओ निगाह की शर्तें भी हारना होंगी
तेरे विसाल की ख़्वाहिश के तेज़ रंगों से
तेरे फ़िराक़ की सुब्हें निखारना होंगी
ये शायरी ये किताबें ये आयतें दिल की
निशानियाँ ये सभी तुझ पे वारना होंगी