भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुद एहतसाबी / राशिद 'आज़र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी कभी मैं
जब अपने अंदर से झाँकता हूँ
तो मेरे बाहर की सारी दुनिया
मिरे मुक़ाबिल खड़ा हुआ
ज़ालिमों का लश्कर दिखाई देती है
और मैं ख़ुद को अपने बाहर के आदमी को
अजीब सी बे-तअल्लुक़ी से
इक अजनबी बन के देखता हूँ

मगर वो बाहर का मैं
इसी ज़ालिमों के लश्कर से
है नबर्द-आज़मा मुसलसल
कभी वो ज़ालिम पे हमला-आवर
कभी वो मज़्लूम की हिमायत में
दिल-फ़िगार ओ मलूल ओ गिर्यां

वो मेरे अंदर के मैं से कहता है
बाहर आओ
फ़सील ढाओ
हिसार तोड़ो
हमारी सफ़ में
तुम्हें भी आख़िर
कभी तो होना पड़ेगा शामिल