भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ुद एहतसाबी / राशिद 'आज़र'
Kavita Kosh से
कभी कभी मैं
जब अपने अंदर से झाँकता हूँ
तो मेरे बाहर की सारी दुनिया
मिरे मुक़ाबिल खड़ा हुआ
ज़ालिमों का लश्कर दिखाई देती है
और मैं ख़ुद को अपने बाहर के आदमी को
अजीब सी बे-तअल्लुक़ी से
इक अजनबी बन के देखता हूँ
मगर वो बाहर का मैं
इसी ज़ालिमों के लश्कर से
है नबर्द-आज़मा मुसलसल
कभी वो ज़ालिम पे हमला-आवर
कभी वो मज़्लूम की हिमायत में
दिल-फ़िगार ओ मलूल ओ गिर्यां
वो मेरे अंदर के मैं से कहता है
बाहर आओ
फ़सील ढाओ
हिसार तोड़ो
हमारी सफ़ में
तुम्हें भी आख़िर
कभी तो होना पड़ेगा शामिल