भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुद को औरों की तवज्जुह का तमाशा न करो / अब्दुल अहद ‘साज़’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ुद को औरों की तवज्जुह<ref>ध्यान देना</ref> का तमाशा न करो
आइना देख लो, अहबाब<ref>दोस्तों</ref> से पूछा न करो

वह जिलाएंगे तुम्हें शर्त बस इतनी है कि तुम
सिर्फ जीते रहो, जीने की तमन्ना न करो

जाने कब कोई हवा आ के गिरा दे इन को
पंछियो ! टूटती शाख़ों पे बसेरा न करो

आगही<ref>ज्ञान</ref> बंद नहीं चंद कुतुब-ख़ानों<ref>पुस्तकालय</ref> में
राह चलते हुए लोगों से भी याराना करो

चारागर!<ref>चिकित्सक</ref> छोड़ भी दो अपने मरज़ पर हम को
तुम को अच्छा जो न करना है, तो अच्छा न करो

शेर अच्छे भी कहो, सच भी कहो, कम भी कहो
दर्द की दौलते-नायाब <ref>अमूल्य / मुश्किल से मिलने वाली दौलत</ref> को रुसवा न करो


  

शब्दार्थ
<references/>