ख़ुद को तोड़ कर छोड़ आया हूँ तुम्हारे पास / दयानन्द पाण्डेय
मैं लौट तो आया हूं तुम्हारे पास से
लेकिन लगता है कुछ छूट गया है वहां
ऐसे कि जैसे ख़ुद ही छूट गया हूं
वहीं तुम्हारे पास ही
जाने क्या-क्या छोड़ आया हूं
वह धूप, वह बादल, वह बारिश
वह आंखें, वह सपने, वह साज़िश भी
तुम्हें पाने के लिए जिन्हें हज़ार बार तोड़ता रहा
जोड़ता रहा अपने नेह से तुम्हारे भीतर बसे मेह से
यह नेह, वह मेह और उस की शीतल फुहार
तुम्हारे वक्ष पर कपोल रख कर वह मदमाती मनुहार
यह सब भी तो वहीं छोड़ आया हूं
तुम देखना मेरी अंगुलियां
वहीं कहीं तो नहीं रह गईं
तुम्हें हेरती, तुम्हें सहेजती
तुम्हें थपकी देती
मेरी हथेलियां भी शायद वहीं रह गई हैं
वह मेरे अधर
जिन पर तुम ख़ुद
बांसुरी बनती नहीं अघा रही थी
और कहती थी तुम कि
ऐसे ही मद्धम-मद्धम बजना चाहती हूं तुम्हारे भीतर
कि जैसे मालकोश
क्यों कि इस में ऋषभ और पंचम स्वर नहीं लगते
इसमें गंधार धैवत और निषाद कोमल लगते हैं
रात्रि के तीसरे प्रहर राग भैरवी थाट से निकले
इस मालकोश में तुम हरदम निबद्ध होना चाहती थी
मद्धम-मद्धम
हो सके तो इन सब को
सहेज, संभाल कर रखना
किसी सुई-धागे की तरह
क्यों कि बहुत कुछ छूट गया है
बेहिसाब
इस मालकोश को भी
उस के भैरवी थाट में ही
शेष रखना
क्यों कि मैं फिर-फिर आऊंगा
किसी रात्रि के तीसरे प्रहर
तुम्हारे भीतर मद्धम-मद्धम उतरने
उतर कर तुम्हें निबद्ध करने
देखो फिर से
कुछ छूट गया है
कि कुछ टूट गया है
वहीं तुम्हारे पास ही
कि टूट गया हूं मैं ही
तुम्हारे पास छूट कर
देखो, मुझे बचा कर रखना
ज़रा देखना तो
कि और क्या-क्या छूटा है वहां
क्यों कि तुम्हें देखने और तुम से बिछड़ने के द्वंद्व में
कुछ ला नहीं पाया अपने साथ
लाता भी भला कैसे कुछ
ख़ुद को तोड़ कर छोड़ आया हूं तुम्हारे पास
[13 मई, 2015]