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ख़ुद ही की ख़ातिर ख़ुद को तरसाते हैं / सूरज राय 'सूरज'
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ख़ुद ही की ख़ातिर ख़ुद को तरसाते हैं।
जीने की अंधी धुन में मर जाते हैं॥
आईना तू कितने बरसों बाद मिला
बैठ! तुझे हम दिल के ज़ख़्म दिखाते हैं॥
एक ही मौसम है इस घर के अंदर का
सबकी अपनी बारिश अपने छाते हैं॥
इतना ज़्यादा क़र्ज़ अना ने लाद दिया
लम्हा-लम्हा केवल सूद चुकाते हैं॥
बोझ उठा न पाए एहसाँ का वरना
हम क़ुव्वत से दुगना बोझ उठाते हैं॥
आप के जैसे डरते होंगे "सूरज" से
साहब हम मिट्टी के दिये बनाते हैं॥