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ख़ुद ही ख़ुद से मात खाती आ रही है / देवी नांगरानी

ख़ुद ही ख़ुद से मात खाती आ रही है ज़िन्दगी
दीखती आज़ाद लेकिन कैद-सी है ज़िन्दगी

कश्मकश के जाल में हर शख़्स है उलझा हुआ
दायरों ही दायरों में घूमती है ज़िन्दगी

ज़िन्दगी की कद्र करना सीख ले नादान कुछ
ये करम उसका है जो तुझको मिली है ज़िंदगी

शोर की इन बस्तियों में कहकहे मीठे कहाँ
ख़ुशनुमा ख़ामोशियों में रागिनी है ज़िन्दगी

हौसले हों गर जवां तो रास्ते पुरख़म नहीं
मुश्किलों की धूप में भी चाँदनी है ज़िन्दगी

दौड़ती ही वो रही है इक खिलाड़ी की तरह
उम्र के इस मोड़ पर अब हांफती है ज़िन्दगी

दूर तक सहराओं में भटका किये हम उम्र भर
प्यास ‘देवी’ कैसी लेके चल रही है ज़िन्दगी