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ख़ुलूस-ए-शह्र को एहसास-ए-जाविदाँ दे दे / ज़ाहिद अबरोल
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ख़ुलूस-ए-शहर को एहसास-ए-जाविदां दे दे
सुकून दिल का, मसर्रत का इक जहां दे दे
हज़ारों सालों से चुपचाप सह रहे हैं यह लोग
बस इनकी ख़्वाहिश-ए-इज़हार को ज़बां दे दे
ख़ुदा! तू ले ले सभी कुछ दिया है जो मुझको
बस उसके बदले में तू मुझको मेरी मां दे दे
यह कैसे रिश्ते हैं जो इम्तहान लेकर भी
हमेशा कहते हैं इक और इम्तहां दे दे
मकां का वा‘दा तू सब बेघरों से करता था
मकान दे न दे ख़ाली तसल्लियां दे दे
बदी से लड़ने की ख़ातिर हमें भी अब “ज़ाहिद”
सुख़न के तीर, शिकेबाई की कमां दे दे
शब्दार्थ
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