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ख़ुशबू है जी-भर / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
आज सुबह
कमरे की खिड़की जब खोली
गौरैया बोली
नन्हीं-सी धूप
घुसी चुपके
कुर्सी पर बैठी
दर्पण को छेड़
खिलखिलाई
छाँव हँसी - ऐंठी
छिपी मेज के पीछे
रितु की हमजोली
गौरैया बोली
आँगन में
फूल रहा बेला
ख़ुशबू है जी-भर
बाहर
उजियाले चुप बैठे
आहट है भीतर
छुपा-छुपल खेल रही
बच्चों की टोली
गौरैया बोली
सूरज ने छुआ
और सिहरा
फिर नया कैलेंडर
लिखे मिले
कमसिन संदेशे
चौखट के ऊपर
अचरज से देख रहीं
इच्छाएँ भोली
गौरैया बोली