भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुशबू है जी-भर / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज सुबह
कमरे की खिड़की जब खोली
  गौरैया बोली
 
नन्हीं-सी धूप
घुसी चुपके
कुर्सी पर बैठी
दर्पण को छेड़
खिलखिलाई
छाँव हँसी - ऐंठी
 
छिपी मेज के पीछे
   रितु की हमजोली
 गौरैया बोली
 
आँगन में
फूल रहा बेला
ख़ुशबू है जी-भर
बाहर
उजियाले चुप बैठे
आहट है भीतर
 
छुपा-छुपल खेल रही
बच्चों की टोली
 गौरैया बोली
 
सूरज ने छुआ
और सिहरा
फिर नया कैलेंडर
लिखे मिले
कमसिन संदेशे
चौखट के ऊपर
 
अचरज से देख रहीं
इच्छाएँ भोली
  गौरैया बोली