ख़ुशावक़्ते कि वादे कर के तुम हम से मुकरते थे / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
ख़ुशा-वक़्ते कि वादे कर के तुम हम से मुकरते थे
"यही रातें थीं और बातें थीं वो दिन क्या गुजरते थे"!
रहीन-ए-सद-निगाह-ए-शौक़ थी सब जल्वा-आराई
नज़र पड़ती थी जितनी उन पे वो उतना निखरते थे
क़यामत-ख़ेज़ वो मंज़र भी इन आँखों ने देखा है
क़यामत हाथ मलती थी जिधर से वो गुज़रते थे
यही है जिसकी चाहत में रहे गुमकर्दा-ए-मंज़िल?
यही दुनिया है सब जिसके लिए बेमौत मरते थे?
हिसार-ए-ज़ात से बाहर अजब इक और आलम था
तिरे जल्वे सिमटते थे, तिरे जल्वे बिखरते थे
अना की किर्चियां बिखरी पड़ी थी राह-ए-आख़िर में
ये आईने तो हमने ज़िन्दगी भर ख़ूब बरते थे
हमारी बेबसी यह है कि अब हैं खु़द से बेगाना
कभी वो दिन थे अपने आप पर हम फ़क्र करते थे
किसी के ख़ौफ़-ओ-ग़म का ज़िक्र क्या हैजान-ए-फ़ुर्क़त में
वो आलम था कि हम ख़ुद अपने ही साये से डरते थे
हुई मुद्दत कि हम हैं और शाम-ए-दर्द-ए-तन्हाई
कहाँ हैं सब वो चारागर हमारा दम जो भरते थे
ख़ुदा रख़्खे सलामत तेरा जज़्ब-ए-आशिक़ी "सरवर"
सुना है वो भरी महफ़िल में तुझको याद करते थे