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ख़ुशियों की शाम रंज के सांचे में ढल गई / विवेक बिजनौरी

ख़ुशियों की शाम रंज के सांचे में ढल गई,
इक शख़्स क्या गया मिरी दुनिया बदल गई

लफ़्ज़ों के साथ आँखों के बादल बरस पड़े,
कागज़ की नाव पहली ही बारिश में गल गई

कल रात आसमान का मंज़र अजीब था,
कल रात आधे चाँद को बदली निगल गई

आँखों के फूलदान में इक ख़ाब की कली,
आँसू की गर्म बूँद के गिरने से जल गई

तुम जिसको दिन समझ रहे हो, रात ही तो है
सूरज से सिर्फ़ रात की सूरत बदल गई

तस्वीर कुछ दिनों से है चुपचुप सी आपकी,
शायद इसे भी मेरी कोई बात खल गई

ये क्या हुआ कि मौत भी मुँह फेरने लगी,
शायद हयात फिर से कोई चाल चल गई