ख़ुशी दहलीज़ से ही उलटे पावँ लौट जाती है / सिया सचदेव
ख़ुशी दहलीज़ से ही उलटे पावँ लौट जाती है
मेरे घर में हर इक जानिब उदासी मुँह चिढ़ाती है
पहाड़ो जैसे सदमे झेलती है उम्र भर लेकिन
बस इक औलाद की तकलीफ़ से माँ टूट जाती है
मैं पी का घर अकेला छोड़ के पीहर न जा पाऊँ
मेरे बाबा तड़पते हैं,मुझे माँ घर बुलाती है
चमक उठती हैं आँखे सास की सूने से आँगन में
नए मेहमान की ख़ातिर बहू स्वेटर बनाती है
बहुत कुछ है मय्यसर ज़िंदगानी में मगर फिर भी
ए मेरी माँ कमी तेरी मुझे हरपल सताती है
नशे में क्या कहा तुमने तुम्हें कब होश रहता है
तुम्हारे इस नशे से होश वाली टूट जाती है
सुकूँ मिलता नहीं है शहज़ादी को हवेली में
ग़रीबी टाट के पर्दे के पीछे मुस्कुराती है
सिया माँ बाप के माथे पे सलवट जागती है तब
कुंवारी कोई लड़की जब मिलन का गीत गाती है