भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ुशी मिली तो ये आलम था / 'ज़फ़र' इक़बाल
Kavita Kosh से
ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
के ध्यान ही न रहा ग़म की बे-लिबासी का
चमक उठे हैं जो दिल के कलस यहाँ से अभी
गुज़र हुआ है ख़यालों की देव-दासी का
गुज़र न जा यूँही रुख़ फेर कर सलाम तो ले
हमें तो देर से दावा है रू-शनासी का
ख़ुदा को मान के तुझ लब के चूमने के सिवा
कोई इलाज नहीं आज की उदासी का
गिरे पड़े हुए पत्तों में शहर ढूँढता है
अजीब तौर है इस जंगलों के बासी का