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ख़ुशी मिली है कुछ दे कर भी / विनोद तिवारी
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ख़ुशी मिली है कुछ देकर भी
मन भारी है कुछ पाकर भी
रहते आए हम बच कर भी
बाहर कुछ टूटा भीतर भी
उठे दुआ के लिए कभी जो
उन हाथों देखे ख़ंजर भी
ख़ून मे लथ-पथ फूल पड़े थे
देखे कुछ ऐसे मंज़र भी
मोम नहीं था वह पत्थर था
हमने तो देखा छूकर भी
श्रम ही श्रम था जिनका जीवन
भूखे नंगे थे बेघर भी