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ख़ुश्क जंगल की मर गईं सड़कें / श्याम कश्यप बेचैन
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ख़ुश्क जंगल की मर गईं सड़कें
ज़र्द पत्तों से भर गईं सड़कें
चोटियों तक पहुँच ही जाएँगी
खाइयों में उतर गईं सड़कें
जाने कैसी घड़ी में निकली थीं
लौट कर फिर न घर गईं सड़कें
बह गए पुल उफ़नते पानी में
अचकचा कर ठहर गईं सड़कें
कितना दहशत भरा था सन्नाटा
अपने आहट से डर गईं सड़कें
नाम उनके शहर का सुनते ही
कुछ ज़ेहन में उभर गईं सड़कें
दूर टीले तलक दिखीं जाते
फिर न जाने किधर गईं सड़कें