ख़ुश्क सहराओं की क़िस्मत को बदल आते हैं / नवीन सी. चतुर्वेदी
ख़ुश्क सहराओं की क़िस्मत को बदल आते हैं
आप भी चलिये ज़रा दूर टहल आते हैं
आप के जाते ही ग़म आ के पसर जाता है
दिल की दीवार से छज्जे भी निकल आते हैं
आप जब आप नहीं रहते हैं और हम भी हम
उम्र में ऐसे तो कुछ एक ही पल आते हैं
एक तो बाग़ में जाते नहीं अब के बच्चे
और जाते हैं तो कलियों को मसल आते हैं
गुल खिलाये थे जो हम ने वो चुभन देने लगे
आप साथ आयें तो काँटों को कुचल आते हैं
जिन से लगता था पहाड़ों सा पहाड़ों का सफ़र
शाहराहों पे कहाँ वैसे टनल आते हैं
मुद्दतों बाद ग़ज़ल पढ़ने का मौक़ा आया
उन से पाया हुआ कुछ दर्द उगल आते हैं
सुनते हैं आप के सीने से लगे रहते हैं ग़म
हम भी जाते हैं किसी सोज़ में ढल आते हैं
दिल हमारा है मगर बात नहीं सुनता है
क्या पता कैसे इसे पंख निकल आते हैं
प्यार थोड़ा ही कतरता है परिंदों के पर
दिल में हसरत हो तो रसते भी निकल आते हैं
एक चिड़िया जो चमन से रही कुछ दिन ग़ायब
आज़ तक उस के ख़यालों में महल आते हैं
किस लिए कीजे अजी रद्दोबदल का शिक़वा
रद होने के लिये ही तो बदल आते हैं
चल बदल डालें, पुराना हुआ ये टेलिविजन
इस में धुँधले से शहंशाहे-मुगल आते हैं
शह्र में हमने कोई मेम नहीं की है, सुन!
राहतेजान बिना बात न जल, आते हैं
मुफ़्त में काम कराओ तो सभी हैं मशरूफ़
जिस से भी कहिये उसी शख्स को बल आते हैं
उस ने एक बार भी सीढ़ी से गिराया न हमें
हम तो बस यूँ वहाँ जा के फिसल आते हैं