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ख़ुश्बू-ए-गुल भी आज है अपने चमन से दूर / इस्मत ज़ैदी

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ख़ुश्बू ए गुल भी आज है अपने चमन से दूर
दरिया में चाँद उतरा है चर्ख़ ए कुहन से दूर

मेरा वजूद ऐसे बियाबाँ में खो गया
ग़ुरबत में जैसे कोई मुसाफ़िर वतन से दूर

थीं शफ़क़तें जहान की अपनों के दरमियाँ
मैं ख़ाली हाथ रह गया आ कर वतन से दूर

माँ की दुआएँ बाप का साया हो गर नसीब
हो ज़िंदगी बलाओं से ,रंज ओ मेहन से दूर

मुझ को ज़रूरियात ने आवाज़ दी बहुत
लेकिन न जा सका कभी गंग ओ जमन से दूर

तू दोस्ती के वास्ते जाँ भी निसार कर
रहना मगर बख़ील से, वादा शिकन से दूर

दरिया के पास आ के भी प्यासा पलट गया
पानी नहीं था क़ब्ज़ ए तश्ना दहन से दूर

कोशिश ये थी शिकस्ता दिलों को सँभाल ले
लेकिन 'शेफ़ा' ही रह न सकी इस चुभन से दूर