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ख़ुश्बू को तितलियों के परों में छिपाऊंगा / बशीर बद्र
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ख़ुश्बू को तितलियों के परों में छिपाऊँगा
फिर नीले-नीले बादलों में लौट जाऊँगा
सोने के फूल-पत्ते गिरेंगे ज़मीन पर
मैं ज़र्द-ज़र्द शाख़ों पे जब गुनगुनाऊँगा
घुल जायेंगी बदन पे जमी धूप की तहें
अपने लहू में आज मैं ऐसा नहाऊँगा
इक पल की ज़िंदगी मुझे बेहद अज़ीज़ है
पलकों में झिलमिलाऊंगा और टूट जाऊँगा
ये रात फिर न आएगी बादल बरसने दे
मैं जानता हूँ सुबह तुझे भूल जाऊँगा
जब रात के सुपुर्द मुझे करने आओगे
रूमाल रोशनी का हवा में उड़ाऊँगा
आँगन में नन्हें-नन्हें फरिश्ते लड़ेंगे जब
भूरी शफ़ीक़ आँखों में मैं मुस्कराऊँगा