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ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहाँ था / अमीर हम्ज़ा साक़िब
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ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहाँ था
इक दश्त-ए-बे-अमाँ मगर दरमियान था
मेरी बरहना-पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
गोरे-बदन पे उस के भी नीला निशान था
किस ख़ेमा-ए-मलाल में रातें बसर हुईं
किस ग़म-कदे पे मेहरबाँ ना-मेहरबान था
रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
वो क़िस्सा-गो ख़ुद अपने में इक दास्तान था
इस सम्त गिर्या-ज़ारी ओ काफ़ूर की महक
उस सम्त ख़ुश-लिबासी थी और इत्र-दान था