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ख़ून धीरे-धीरे निकलता है कलेजे से / दिलीप चित्रे
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ख़ून धीरे धीरे निकलता है कलेजे से
वह धड़कता रहता है ख़त्म हो जाने तक।
लगातार ख़ून बहाते रहना हमारे भाग्य में है
जब तक कि हमारा नामोनिशान मिट न जाए।
मैं वो काग़ज़ नहीं हूँ, जिस पर मैं लिखता हूँ
न ही वो शब्द जिसे मैं टाइप, प्रिंट या स्याही से उगलता हूँ।
मैं किसी घटना की छाया नहीं हूँ
न ही उसका कोई दाग जो मिट नहीं सकता।
यह एक तरह का ख़ून है जो न जमता है न थमता है।
यह प्रतीक भी नहीं है
ज्ञान की अमिट लौ और उसकी रोशनी के मिथकों का।
मेरे पंछी बिना आकाश के उड़ते हैं।
मेरी मछलियाँ तैरती हैं शून्य में।
मेरे शब्द पड़े हैं आहटों के जंगल में
उन पेड़ों के बीच जो अभी उगे नहीं हैं, उभरे नहीं हैं।
अनुवाद : तुषार धवल