भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ून बन कर मुनासिब नहीं दिल बहे / 'हफ़ीज़' जालंधरी
Kavita Kosh से
ख़ून बन कर मुनासिब नहीं दिल बहे
दिल नहीं मानता कौन दिल से कहे
तेरी दुनिया में आये बहुत दिन रहे
सुख ये पाया कि हमने बहुत दुख सहे
बुलबुलें गुल के आँसू नहीं चाटतीं
उनको अपने ही मर्ग़ूब हैं चहचहे
आलम-ए-नज़'अ में सुन रहा हूँ मैं क्या
ये अज़ीज़ों की चीख़ें है या क़हक़हे
इस नये हुस्न की भी अदायों पे हम
मर मिटेंगे बशर्ते कि ज़िंदा रहे