भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ूबसूरत दिन / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
उसने खोल दी खिड़कियाँ
ढेर-सी ताज़ा हवाएँ दौड़ कर आ गईं घर में
ढेर-सी धूप आ गई
और घर के कोने-अतरे में बिखरने लगी
टंगे हुए कलैंडर में
उसने घेर दी आज की तारीख़
तस्वीरों पर लगी धूल को साफ़ किया
रैक पर सजा कर रख दीं क़िताबें
खिड़की के बाहर
हिलती हुई टहनी को देखा और कहा
'तुम भी आओ मेरे घर में'
टहनी पर बैठी हुई बुलबुल
उल्लास में फ़ुदकती रही
पहली बार वह अपने घर में देख रहा था
इतना ख़ूबसूरत दिन