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ख़ौफ़ तारीकी भयानकपन मेरे चारों तरफ़ / ज़फ़र गोरखपुरी

ख़ौफ़ तारीकी<ref>अन्धियारा</ref> भयानकपन मेरे चारों तरफ़,
रात का एक सनसनाता बन मेरे चारों तरफ़।

किस ज़मीं पर ऐ ख़ुदा तूने उतारा है मुझे
वहशतें हैं और पागलपन मेरे चारों तरफ़।

दर्द ता हद्‍दे नज़र दीवार की सूरत बुलन्द
मैं अकेला, धूप का आँगन मेरे चारों तरफ़।

यह भरी दुनिया भरे कूचे भरे बाज़ारो शह्र
फिर भी कैसा है यह ख़ालीपन मेरे चारों तरफ़।

एक चेहरे को छुपाऊँ दूसरा चेहरा खुले
जैसे आवेज़ाँ<ref>लटके हुए</ref> हों सौ दर्पन मेरे चारों तरफ़।

छूटता किस किससे, किस किससे गुज़रता बचके मैं
मसलेहत के थे कई बन्धन मेरे चारों तरफ़।

शब्दार्थ
<references/>